सुबह सुबह कढ़ाई में मखमली तेल में नाचती लाल कचौड़ी के दर्शनाभिलाषी होकर लपकती हुई जीभ को संभालते हुए कभी लाईन में खड़े हुए है?
अगर नहीं, तो क्या खाक कचौड़ी का आनंद लिए है।
पूडी को कचौड़ी कहने का मज़ा ही अलग है वो दिव्य काव्य है, तो आइए पहले समझिए कि ये राजसी भोज है क्या…
उड़द की दाल की पीसी हुई थोड़ी मसालेदार पीठी को आटे में भर कर बनाई देशी घी से भरे कड़ाहे में नाचती वो लाल लाल कचौड़ी और थोड़ा हल्का सुगंध का फ्लेवर लिए मोटा जलेबा. ये है बनारस का राजसी नाश्ता.
कचौरी शब्द कईयों को भ्रमित करता है, लोग कचौड़ी को पूड़ी अवतार में पाकर असमंजस में पड़ जाते है, असल में कचौड़ी बना है कच+पूरिका से। क्रम कुछ यूं रहा- कचपूरिका फिर उसे कचपूरिआ फिर कचउरिआ और फिर आज के समय में कचौरी जिसे कई लोग कचौड़ी भी कहते हैं, के नाम से जाना जाता है। संस्कृत में कच का अर्थ होता है बंधन, या बांधना। दरअसल प्राचीनकाल में कचौरी पूरी की आकृति की न बन कर मोदक के आकार की बनती थी जिसमें खूब सारा मसाला भर कर उपर से लोई को उमेठ कर बांध दिया जाता था। इसीलिए इसे कचपूरिका कहा गया।
जब बाकी की दुनिया बेड-टी का इंतजार कर रही होती है, सयाने बनारसी सुबह छह बजे ही गरमा-गरम कचौड़ी और रसीली जलेबी का कलेवा दाब कर टंच हो चुके होते हैं। भोर चार बजते-बजते शहर के टोले मुहल्ले भुने जा रहे गरम मसालों की सोंधी खुशबू से मह-मह हो उठते हैं। सरसों तेल की बघार से नथुनों को फड़का देने वाली पंचफोड़न के छौंक से अदरक की भूनी गर्मी में पकी कोहड़े की तरकारी की झाक और खमीर के खट्टेपन और गुलाबजल मिश्रित शीरे में तर करारी जलेबियों की निराली गंध से सुवासित आबो हवा स्वाद का जादू जगा चुकी होती हैं। एक ऐसा जादू जो सोये हुए को जगा दे। जागे हुओं को ब्रश करा कर सीधे ठीयें तक पहुंचा दे।
दूसरी और जलेबी मूल रूप से अरबी लफ्ज़ है और इस मिठाई का असली नाम है जलाबिया । यूं जलेबी को विशुद्ध भारतीय मिठाई मानने वाले भी हैं। शरदचंद्र पेंढारकर (बनजारे बहुरूपिये शब्द) में जलेबी का प्राचीन भारतीय नाम कुंडलिका बताते हैं। वे रघुनाथकृत ‘भोज कुतूहल’ नामक ग्रंथ का हवाला भी देते हैं जिसमें इस व्यंजन के बनाने की विधि का उल्लेख है। भारतीय मूल पर जोर देने वाले इसे ‘जल-वल्लिका’ कहते हैं । रस से परिपूर्ण होने की वजह से इसे यह नाम मिला और फिर इसका रूप जलेबी हो गया। फारसी और अरबी में इसकी शक्ल बदल कर हो गई जलाबिया।
सो बनारस में भोजन की शुरुआत होती है सुबह के नाश्ते से ………ऐसा बताते हैं की पुराने ज़माने में कोई बनारसी कभी घर पे नाश्ता नहीं करता था ……वहां जगह जगह दुकानों पे और ठेलों पे कचौड़ी जलेबी बिका करती थी ….आज भी बिकती है ….एक पूरी गली है बनारस में ….नाम है कचौड़ी गली ……वो केंद्र था कभी बनारसी नाश्ते का ……..अब ये कचौड़ी असल में पूड़ी है जिसे थोडा अलग ढंग से बनाते हैं ………उसमे उड़द की दाल की पीठी भरते है और उसे करारा कर के तलते है ………पहले देसी घी में बनती थी …अब refined में बनाते हैं …….साथ में सब्जी …..आज भी दोने और पत्तल (पेड़ के पत्तों से बनी (use and throw plates ) में ही परोसते हैं …..फिर उसके बाद जलेबी ……..
ये कचौड़ी और जलेबी का combination है ….जैसे coke और चिप्स का है ……..अब जलेबी तो दुनिया जहां में बिकती है ….पर बनारस की जलेबी की तो बात ही कुछ और है.
यह बात अलग है कि स्वास्थ्य के प्रति सर्तकता बढ़ जाने के कारण कुछ लोग अब नाश्ते की फेहरिस्त में ओट्स और दलिया को प्रमुखता देने लगे हैं। टोस्ट और आमलेट भी जोर आजमाइश में है लेकिन बनारस की जीवन शैली में शामिल हो चुके जलेबी कचौड़ी को अब उसकी जगह से हटाना संभव नहीं है।
खाद्य शास्त्र में एक और वर्णन मिलता है, कचौड़ी के भीतर एक तह आटे के अतिरिक्त पिसी हुई दाल की रहती है। पहले इसका नाम चकोरी था। शब्दशास्त्र के नियम के अनुसार वर्ण इधर से उधर हो जाते हैं। इसीसे चकोरी से कचोरी हो गया। चकोरी भारत में एक चिड़िया होती है जो अंगारों का भक्षण करती है। कचौरी खानेवाले भी अग्नि के समान गर्म रहते हैं, कभी ठण्डे नहीं होते। गर्मागर्म कचौरी खाने का भारत में वही आनन्द है जो यूरोप में नया उपनिवेश बनाने का।